नज़र का नजरिया

हमें तो हर इंसान में बस इंसान दिखता है।
मगर उन्हें हिंदू और मुसलमान दिखता है।।
अरे गैरों की क्या बात करूं।
उन्हें तो अब अपनों में भी कब्रिस्तान और श्मशान दिखता है।।

नजर नहीं होती गलत सही, सब नजरिए का खेल होता है।
जो नजर आता है दहशतगर्द उन्हें, कभी वही हमदर्द होता है।।
सब जानकर भी खामोश हैं यहां, कोई आवाज नहीं करता है।
सच बोलकर कोई, किसी को नाराज नहीं करता है।।

दूसरों की गलतियाँ दिख जाती हैं सभी को मगर।
अपनी गलतियों को वो हमेशा नजरअंदाज करता है।।
खुद को राष्ट्रवादी कहने वालों अब जाग जाओ जरा।
क्योंकि वक्त बदलने में भी बस पल भर का वक्त लगता है।।

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